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फेसबुक से पूरी हुई ‘संस्कार’ की तलाश

जिंदगी का फलसफा
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थॅंक्स फेसबुक! एक अच्छा काम करने का जरिया बनने के लिए। आभासी दुनिया के उन दोस्तों को भी धन्यवाद जिनके सहारे फेसबुक पर ‘संस्कार’ की तलाश पूरी हुई। धन्यवाद इसलिए भी क्योंकि इस तलाश की परिणति ने मुझे भी सुखद अनुभूति दी।
बुधवार रात डेढ़ बजे दफ्तर से रोडवेज पहुंचा। कंडक्टर के पीछे दूसरी सीट खाली मिली तो वहीं जम गया। ऊंघते हुए कब फरेंदा पहुंचा पता ही न चला। आंखें भींची उतरने के लिए तैयार होने लगा तभी सीट के नीचे कुछ चमका। नीचे लुंबिनी निवासी 9वीं के छात्र संस्कार ओझा की आईडी थी, जो वहां गिरे पर्स से बाहर झांक रही थी। बस में नजर दौड़ाई तो आईडी से मिलती-जुलती शक्ल ही नहीं उस आयु वर्ग का भी कोई शख्स न दिखा। पहले सोचा कि आसपास बैठे यात्रियों से पूछताछ करूं फिर यह सोचकर रुक गया कि 9वीं के स्टूडेंट के जरूरत के रुपये कहीं गलत हाथों में न चले जाएं। आईडी पर मोबाइल नंबर भी था। कॉल लगाई पर आईएसडी नंबर होने के कारण फोन कनेक्ट न हुआ। व्हाट्स एप और फेसबुक का ध्यान आया। रात तीन बजे दोनों माध्यमों पर संस्कार को संदेश भेजा कि पर्स और उसमें मौजूद रकम पूरी तरह सुरक्षित है। कुछ देर इंतजार किया, मगर प्रतिक्रिया न मिली तो सो जाना मुनासिब समझा। हालांकि, बिस्तर पर यही सोचता रहा कि पर्स खोने के बाद छात्र का सफर कैसा रहा होगा।
सुबह 10 बजे नींद टूटी तो सबसे पहले मोबाइल देखा, लेकिन संदेश नहीं आया था। दोबारा संस्कार की फेसबुक प्रोफाइल खोली। कस्बे के ही एक सीनियर साथी उसकी फ्रेंडलिस्ट में दिखे। बस फिर क्या, संस्कार की फोटो डाउनलोड की और उसके गुम हुए पर्स को लेकर एक पोस्ट लिख डाला। इसे उसके फ्रेंडलिस्ट में शामिल सीनियर साथी को बिना उनकी अनुमति लिए ही टैग कर दिया। लोगों के लाइक्स और कमेंट के बीच शाम को कस्बे के एडवोकेट अरविंद उपाध्याय की कॉल आई। खुद को संस्कार का मौसा बताकर नेक कार्य के लिए धन्यवाद दिया। जब वह घर पहुंचे तो बताया कि शाम को कचहरी से खाली होकर फेसबुक पर संस्कार की फोटो के साथ मेरी पोस्ट पढ़ी तो संपर्क किया। आभार जताया और संस्कार से बात कराई। संस्कार की अमानत उसके मौसा के हवाले करके मुझे जो खुशी मिली कभी मौका मिलने पर किसी की मदद करके उसे आप भी महसूस कर सकते हैं।
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