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“सूखा”

जिंदगी का फलसफा
जिंदगी का फलसफा
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खेत की पथरीली माटी में दरारें निहारते हुए
किसान बेईमान बदरा को कोस रहा है
पीली फसल देख उसके तड़प की कहानी
धूप में जला उसका चेहरा  कह रहा है
सोना उगाने वाली उसकी अपनी धरती
बेजान सी,  बंजर प्रतीत होने लगी है
लगता बताने, नियति क्रूर खेल है करती
मेहनत न मारी जाय अब अखर होने लगी है
है परेशान महंगू, लालसा भी सन्‍न है
क्‍या कहें वो दर्द अपना, भुखमरी आसन्‍न है
कैसे निकलेगा कर्ज का अब ब्‍याज बोलो
बिटिया का गवना कराना भी बन गया प्रश्‍न है
थे कई ख्‍वाब पनपे धान के इस खेत में
मिट गए उनके निशां खेतों से उड़ती रेत में
वो बताता टीस अपनी मौसम ने उसे धोखा दिया है
रूठी खुदाई उसकी जबसे अबकी ये सूखा पड़ा है।

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