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…मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिंदगी का फलसफा
जिंदगी का फलसफा
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‘आइये महसूस करिए जिंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको’ मजलूमों और किसानो की आवाज के तौर पर पहचाने जाने वाले शायर अदम गोंडवी की ये लाइने फरेंदा खुर्द गाँव की चमरौटी के पास एक हृदयस्पर्शी नज़ारे को देख कर बरबस याद आ गई| दलित टोले के पास नुमाया यह नजारा था ही ऐसा कि हर संवेदनशील को झकझोर सके| आठ से चार साल के तीन यतीम भाइयों कि दारुण दशा का प्रत्यक्ष दर्शन मुझे भी स्तब्ध कर गया| यह दृश्य समाज, प्रशासन और सरकारों को कठघरे में खड़ा करता जन पड़ा और ये तीनों अबोध पूरी व्यस्था के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगे|
जून के पहले पखवारे कि दोपहर बाद करीब तीन बजे का वक्त गाँव के हरिजन टोले के पास बाग में सुखी टहनियां बटोरते तीन बच्चों ने सहसा ध्यान खींचा| बाद में पता चला कि ये पेट भरने कि जुगत में जलौनी सहेज रहे थे| लकड़ियों के इंतजाम के बाद कुछ ईंटों कि मदद से चूल्हा भी जल गया| आठ साल के बालू कि अगुवाई में तीनों मासूमों द्वारा भूख मिटाने की यह कसरत देख एक बार तो दिमाग बिलकुल सन्न सा हो गया| मझली भात पक चुका था| वक्त के मारे ये बेचारे वहीँ मैदान में अब अपना पेट भरने में जुट गए थे| इस बीच कुछ बातें हो चुकी थी, जिनका जिक्र अब जरुरी लगता है| करीब नौ किलोमीटर दूर से दर बदर भटकते हुए यहाँ पहुंचे इन बच्चों इतिहास भी इनके वर्तमान जैसा कारुणिक था| बाले, विजय और प्रदीप नाम के ये तीनो लड़के जात के चमार थे| माँ कुछ अरसे पहले दम तोड़ चुकी थी| बाप दिल्ली में मेहनत मजदूरी किया करता था| तपन के दिनों की एक चिंगारी इन बदनसीबों के नसीब पर बिजली बन कर गिरी| आग की विभीषिका ने इनका फूस का आशियाना झीन लिया| झोपड़ी क्या जली इन बच्चों के सर से क्षत गायब हो गयी| गरीबी से आहत इनका बाप राकेश अपनी औलादों को लावारिश हाल में छोड़ कर दिल्ली निकल गया|
आज मैदान को शरण स्थली बनाये इन मासूमों का दूसरा दिन है| चार बरस के प्रदीप की तबियत कुछ नासाज है| कारन बच्चे खुद बताते हैं| कल दिन के बाद से इन्हें अन्न नहीं मिला था| बालू जो सबसे बड़ा है सभी भाइयों के लिए खाना तैयार कर चुका है| यह सोचते हुए वहां से टला कि तकदीर के सताए ये बेचारे चैन से दो कौर खा सकें| चलते चलते कई सवाल जेहन में गड्ड मड्ड करने लगे| क्या प्रशासन उस वक़्त सो रहा था जब ये बेघर हो कर सड़क पर आ गिरे! ये इस हाल में हैं क्या इसके लिए पूरी व्यवस्था दोषी नहीं है| बहरहाल कुछ ग्रामीणों ने अपनी ओर से संवेदना दर्शाते एक दो बिस्किट के पैकेट दे गए| भारत का भविष्य कहलाने वाले नौनिहालों का यह हाल देख बहुत अखरा| तीन रातों तक यही मैदान उनका आशियाना रहा| इस बीच स्थानीय पत्रकारों को विषय की जानकारी देकर सहयोग की अपील करने समेत चाइल्ड हेल्प लाइन पर संपर्क करने का पूरा प्रयास किया, लेकिन नतीजा सिफ़र रहा| दो दिनों तक संवेदना दर्शाने वाले आस पास के लोगों में तीसरी रात की भोर आश्चर्यजनक बदलाव लेकर आई| नतीजा रहा कि दोबारा वापस न लौटने की ताकीद देकर स्थानीय लोगों ने उन्हें रुखसत कर दिया| मच्छरों के आतंक से पार पाने के लिए फूल जैसे ये बच्चे दारू का सहारा लेते थे या उन्हें इसकी आदत थी, इस बारे में कुछ कहना बेमानी होगा| मगर शराब के नशे में आधी नीद सोने वाले इन बच्चों द्वारा मैदान के किनारे आबादी के पास शौच करना लोगों को नागवार गुजरा था| अब वो अभागे कहाँ गए, मालूम नहीं! लेकिन इतना तो तय है उन मासूमों की जिंदगी पर हर रात भरी है| यह लिखते हुए भी बार बार यही ख्याल आ रहा है कि कैसे गुजारेंगे वो आज कि रात| दलितों के रहनुमाओं के बीच इन दलित बालकों की दशा एक साथ कई सवाल खड़े करती है|
बेमतलब है चाइल्ड हेल्प लाइन-
जब तीन लाडले वक़्त की दुत्कार से दर बदर भटकते मिले तो चाइल्ड हेल्प लाइन पर संपर्क करने के दर्जनों प्रयास असफल गए| अंत में थक हार कर इससे तौबा करना पड़ा|

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