जिंदगी का फलसफा
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लोकतंत्र के इस बगीचे में
क्या खूब मदारी सजती है
नेता के डमरू की धुन पर
जनता बन्दर बन जाती है
मयखानो के भीतर तबतो
राजनीति उबलने लगती है
फिर पैमाने में प्रत्याशी को
संसद की राहें भी दिखती है
नशे में डूबा मयकश तब
टेम्पो टाइट करने लगता है
खुद को वो नेता जी का
छोटा भाई कहने लगता है
साडी और नोटों का तोहफा
जनता में बटने लगता है
फिर असंतुष्ट भी खुश होकर
नेता की जय जय करता है
भोपू के झूठे वादे से तब
जनता गदगद हो जाती है
फिर पांच साल पीड़ा भी
जन स्मृति से मिट जाती है
राजनीति के चालों से फिर
सब सुधबुध यूँ खो जाते हैं
वापिस आगे के पांच साल
फिर बैठे बैठे पछताते हैं||
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